क़ानून में यौन उत्पीड़न की परिभाषा क्या है?
यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए दो क़ानून हैं. दोनों ही साल 2013 में लाए गए.पहले क़ानून के तहत 'किसी के मना करने के बावजूद उसे छूना, छूने की कोशिश करना, यौन संबंध बनाने की मांग करना, सेक्सुअल भाषा वाली टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफ़ी दिखाना या कहे-अनकहे तरीके से बिना सहमति के सेक्सुअल बर्ताव करना', यौन उत्पीड़न माना जाएगा.इसके लिए तीन साल की जेल की सज़ा और जुर्माने का दंड हो सकता है. दूसरा क़ानून, 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वुमेन ऐट वर्कप्लेस (प्रिवेन्शन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल)', ख़ास तौर पर काम की जगह पर लागू होता है.इसमें यौन उत्पीड़न की परिभाषा तो वही है पर उसकी जगह और संदर्भ काम से जुड़ा होना चाहिए.यहां काम की जगह सिर्फ़ दफ़्तर ही नहीं बल्कि दफ़्तर के काम से कहीं जाना, रास्ते का सफ़र, मीटिंग की जगह या घर पर साथ काम करना, ये सब शामिल है. क़ानून सरकारी, निजी और असंगठित सभी क्षेत्रों पर लागू है.दूसरा फ़र्क ये है कि ये औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए कुछ सज़ा दिलाने का उपाय देता है.यानी ये जेल और पुलिस के कड़े रास्ते से अलग न्याय के लिए एक बीच का रास्ता खोलता है जैसे संस्था के स्तर पर आरोपी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई, चेतावनी, जुर्माना, सस्पेंशन, बर्ख़ास्त किया जाना वगैरह. क़ानून के मुताबिक दस से ज़्यादा कर्मचारियों वाले हर संस्थान के लिए एक 'इंटर्नल कम्प्लेंट्स कमेटी' बनाना अनिवार्य है जिसकी अध्यक्षता एक सीनियर औरत करे, कुल सदस्यों में कम से कम आधी औरतें हों और एक सदस्य औरतों के लिए काम कर रही ग़ैर-सरकारी संस्था से हो.उन संस्थानों के लिए जहां दस से कम कर्मचारी काम करते हैं या शिकायत सीधा मालिक के ख़िलाफ़ है, वहां शिकायत ज़िला स्तर पर बनाई जानेवाली 'लोकल कम्प्लेंट्स कमेटी' को दी जाती है.शिकायत जिस भी कमेटी के पास जाए, वो दोनों पक्ष की बात सुनकर और जांच कर ये तय करेगी कि शिकायत सही है या नहीं.सही पाए जाने पर नौकरी से सस्पेंड करने, निकालने और शिकायतकर्ता को मुआवज़ा देने की सज़ा दी जा सकती है. औरत चाहे और मामला इतना गंभीर लगे तो पुलिस में शिकायत किए जाने का फ़ैसला भी किया जा सकता है.अगर शिकायत ग़लत पाई जाए तो संस्थान के नियम-क़ायदों के मुताबिक उन्हें उपयुक्त सज़ा दी जा सकती है.