वो शख्स जिसकी वजह से पूरी दुनिया करने लगी भगवान कृष्ण की पूजा

देश में घूमते समय या कहीं बाजार में या रेलवे स्टेशन पर अक्सर भगवा धारण किए हुए कुछ विदेशी लोग आपको 'हरे रामा हरे कृष्णा' जपते हुए मिल जाएंगे. कौन होते हैं ये लोग और इनका भगवान् कृष्ण से क्या लेना देना? ज़्यादातर अंग्रेज़, अमेरिकी या यूरोपियन देशों के लोग स्वामी प्रभुपाद की वजह से कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित हुए. स्वामी प्रभुपाद यानि अभय चरणावृंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद. इनकी आज पुण्यतिथि है.
इस्कॉन क्या है?
स्वामी प्रभुपाद विश्व में दो चीज़ों के लिए चर्चित हैं. एक कृष्ण भक्ति के लिए और दूसरा कृष्ण भक्ति को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए. इस्कॉन (ISKCON) संस्था यानी 'इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कांशसनेस' यही काम करती है और इसे स्वामी प्रभुपाद ने ही 1966 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में शुरू किया था.केवल 52 साल पुरानी इस संस्था के दुनिया भर में आज 850 से ज़्यादा मंदिर और 150 से ज़्यादा स्कूल और रेस्टोरेंट हैं. यह सभी कृष्ण की भक्ति पर ही आधारित हैं. जैसा की इस्कॉन का नाम भी सुझाता है, वे केवल कृष्ण का प्रचार प्रसार करते हैं.
स्वामी प्रभुपाद कौन हैं?
भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद का जन्म 1896 में कोलकाता में बिजनेसमैन के घर हुआ था. उनके पिता ने अपने बेटे अभय चरण का पालन पोषण ही एक कृष्ण भक्त के रूप में किया जिससे उनकी श्रद्धा कृष्ण में बढ़ती ही चली गई. प्रभुपाद ने 26 साल की उम्र में अपने गुरु सरस्वती गोस्वामी से मुलाक़ात की और 37 की उम्र में उनके विधिवत दीक्षा प्राप्त शिष्य बन कर पूरी तरह कृष्ण भक्ति में लीन हो गए.प्रभुपाद अलग अलग गुरुओं से मिलते रहे और एक गुरु भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने उन्हें सुझाया कि वे अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ज्ञान का प्रसार करें. प्रभुपाद ने श्रीमद् भगवद्गीता पर एक टीका लिखी और गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया.1944 में श्री प्रभुपाद ने बिना किसी सहायता के एक अंग्रेजी पत्रिका आरंभ की जिसका संपादन, पाण्डुलिपि का टंकन और मुद्रित सामग्री के प्रूफ शोधन का सारा कार्य वह स्वयं करते थे. ‘बैक टू गॉडहैड’ नामक यह पत्रिका पश्चिमी देशों में भी चलाई जा रही है और तीस से अधिक भाषाओं में अभी भी छप रही है. प्रभुपाद के दार्शनिक ज्ञान एवं भक्ति की महत्ता पहचान कर गौड़ीय वैष्णव समाज ने 1947 में उन्हें ‘भक्ति वेदांत’ की उपाधि से सम्मानित किया जो अब उनके नाम के साथ जुड़ा है.1959 में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और श्री राधा-दामोदर मंदिर में ही अठारह हजार श्लोक संख्या के श्रीमद् भागवत पुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद और व्याख्या की. श्रीमद् भागवत के प्रारंभ के तीन खंड प्रकाशित करने के बाद श्री प्रभुपाद सितंबर 1965 ई. में अमरीका गए. जब वह भारत से अमेरिका के लिए रवाना हुए तो उनके पास कुछ किताबों और कपड़ों के अलावा कुछ नहीं था. वो यहां से मालवाहक जहाज से अमेरिका पहुंचे. उनके पास पैसे भी नहीं थे. ना ही कोई अमेरिका में उन्हें जानता था लेकिन महज डेढ़-दो साल में ही उन्होंने वहां कृष्ण भक्तों का एक ग्रुप खड़ा कर लिया.
इस्कॉन की स्थापना
करीब एक वर्ष के बाद जुलाई 1966 ई. में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ यानि इस्कॉन की स्थापना की. उन्होंने अपने जीवन का आखिरी दशक संस्था को स्थापित करने में ही बिताया. चूंकि वह सोसायटी के नेता भी थे, इसलिए उनका व्यक्तित्व और प्रबंधन कौशल इस्कॉन के विकास और उनके मिशन की पहुंच के लिए ज़िम्मेदार थे.1966 में इस्कॉन को स्थापित करने के समय उन्हें सुझाव दिया गया था कि शीर्षक में "कृष्ण चेतना" के बजाए 'भगवान चेतना' बेहतर होगा, उन्होंने इस सिफारिश को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि कृष्ण के नाम में भगवान् के सभी रूप और अवधारणाएं शामिल हैं.भक्तों के बढ़ने के बाद और न्यूयॉर्क में एक मंदिर स्थापित किया गया था. 1967 में सैन फ्रांसिस्को में एक और केंद्र शुरू किया गया और वहां से उन्होंने पूरे अमेरिका में अपने शिष्यों के साथ यात्रा की. सड़क पर चलते हुए चिंतन (संक्रिताना), पुस्तक वितरण और सार्वजनिक भाषणों के माध्यम से आंदोलन को लोकप्रिय बनाया गया.
इस्कॉन और बीटल्स
1977 तक खोले गए 108 विश्वव्यापी मंदिरों में से एक, भारत के वृंदावन में कृष्णा-बलराम को समर्पित था. इस्कॉन की स्थापना के बाद सैन फ्रांसिस्को मंदिर से कुछ भक्तों को लंदन, इंग्लैंड भेजा गया जहां वे 60 और 70 के दशक के सबसे पॉपुलर रॉक बैंड द बीटल्स के संपर्क में आए. बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन ने सबसे इस्कॉन में सबसे ज़्यादा रुचि दिखाई. उनके साथ लम्बा समय बिताया और बाद में लंदन राधा कृष्ण मंदिर के सदस्यों के साथ एक रिकॉर्ड तैयार किया.अगले वर्षों में उनकी निरंतर नेतृत्व की भूमिका ने उन्हें दुनिया भर में कई महाद्वीपों पर मंदिरों और समुदायों की स्थापना के लिए कई भ्रमण करना पड़ा. 1977 में वृंदावन में उनकी मृत्यु के समय तक, इस्कॉन वैष्णवों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ज्ञात अभिव्यक्ति बन कर उभर चुका था.