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दलितों की सहभागिता की नींव पर तैयार हुई नाथ पंथ की स्थापना,

Written by कार्यालय,बैस्ट रिपोर्टर न्यूज,जयपुर। समाचार डेस्क प्रभारी—2-पी.सी.योगी on . Posted in बैस्ट रिपोर्टर एक्सक्लूसिव

मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर देशभर में छिड़ी बहस के बीच गोरखनाथ मंदिर की सामाजिक समरसता वाली अलौकिक ख्याति का बखान मौजूद है। जो नहीं जानते हैं, उन्हें यह बताना जरूरी लगता है कि नाथ पंथ की स्थापना दलितों की सहभागिता की नींव पर तैयार हुई है। गुरु गोरक्षनाथ ने कर्मकांडीय उपासना पद्धति के सामानांतर जिस तरह से योग को स्थापित किया, उससे सामान्य जन में वह तो लोकप्रिय हुए ही, उनका पंथ भी लोगों के दिलों में गहरे पैठ गया। ऐसे में जाति ही नहीं मजहबी दीवार भी टूट गई और बड़ी संख्या में दलित ही नहीं मुस्लिम भी नाथ पंथ का हिस्सा हो गए। अगर यह कहा जाए कि नाथ पंथ के मंदिर दलित समूहों के धार्मिक केंद्र के रूप में भी प्रचलित हुए तो कतई गलत नहीं होगा। वंचित और शोषितों के सहयोग से स्थापित हुआ नाथ पंथ आज समृद्धि के उस मुकाम पर पहुंच गया है जहां मंदिर में दलितों के प्रवेश की बात तो छोडि़ए इस पंथ के पुजारी और भंडार गृह में प्रसाद बनाने वालों में कई दलित भी हैं। नाथ पंथ के इतिहास में जाएं तो गुरु गोरक्षनाथ ने जिस बारहपंथी समाज की नींव रखी, उससे हर जाति, धर्म, समाज और वर्ग का व्यक्ति जुड़ा। यह पंथ थे- भुज के कंठरनाथ, पागलनाथ, रावल, पंख या पंक, वन, गोपाल या राम, चांदनाथ कपिलानी, हेठनाथ, आई पंथ, वेराग पंथ, जयपुर के पावनाथ और घजनाथ। यही वजह है कि नाथ पंथ की परंपरा में शुरुआत से ही हर जाति, धर्म और वर्ग का व्यक्ति गोरखपंथी संत से दीक्षा लेकर सिद्धि और मोक्ष के मार्ग पर चलने की शपथ लेता है और अपनी एक अलग पहचान गढ़ता है। नाथ पंथ से जुडऩे के बाद वह किसी जाति, धर्म, समाज, प्रांत और वर्ग का हिस्सा नहीं रह जाता बल्कि सिर्फ नाथ हो जाता है। एक समय ऐसा भी आया जब नाथ योगियों और सूफी संतों की धारा का देश में एक साथ प्रचार-प्रसार हुआ। उस समय बहुत से सूफी संत नाथ साधना पद्धति से प्रभावित हुए और नाथ धारा के होकर रह गए। इससे साफ है कि नाथ पंथ में जाति या धर्म के भेद की बात करना बेमानी है।

यहां तो प्रधान पुजारी ही दलित हैं

यह गौर करने की बात है कि जिस गोरखनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर बहस छिड़ी है, उस मंदिर के प्रधान पुजारी कमल नाथ ही दलित हैं। गोरक्षपीठाधीश्वर की अनुपस्थिति में समस्त आनुष्ठानिक कार्य उन्हीं के हाथों सम्पन्न कराया जाता है। नाथ पंथ के जुड़े देवीपाटन के पाटेश्वरी देवी मंदिर के महंत मिथिलेश नाथ योगी भी दलित जाति से ही हैं। महाराजगंज के चौक बाजार में मौजूद गोरखनाथ मंदिर के पुजारी फलाहारी बाबा दलित हैं। गोरखपुर के जंगल धूसड़ में मौजूद बुढि?ा माता के मंदिर के पुजारी संतराज निषाद है। यह मंदिर नाथ पीठ से ही संचालित होता है।

मंदिर में दलित बनाते हैं भोजन

दलित जाति से नाथ पंथ के प्रेम की एक बानगी गोरखनाथ मंदिर के भंडारे में भी देखने को मिलती है। जहां 12 में से सात भंडारी दलित जाति से हैं। इनके हाथ के बने भोजन को मंदिर के प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इससे बड़ी सामाजिक समरसता की मिसाल शायद ही कहीं देखने को मिले। सिर्फ इतना ही नहीं मंदिर में मोहम्मद यासीन अंसारी मुंशी का काम देखते हैं तो जाकिर अहमद प्रापर्टी का हिसाब-किताब रखते हैं। विनय कुमार गौतम ने मीडिया विभाग संभाल रखा है। अवेद्यनाथ ने डोमराजा के घर किया था सामूहिक भोज छुआछूत और जातिगत बंधन को तोडऩे के मकसद से ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ ने वाराणसी के डोम राजा सुजीत चौधरी के घर जाकर सामूहिक भोज किया था। इस भोज में उनके साथ बड़ी संख्या में साधु-संतों ने हिस्सा लिया था। ब्रह्मलीन महंत द्वारा स्थापित दलित सहभोज की परंपरा का वर्तमान पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ भी बखूबी निर्वहन कर रहे हैँ।

पटना जाकर दलित को बनाया महंत

यहां उस प्रसंग को याद दिलाना भी जरूरी है जब पटना रेलवे स्टेशन के पास मौजूद हनुमान मंदिर में एक दलित पुजारी को तत्कालीन सत्ताधारी लोगों ने पद से हटा दिया था। ऐसे में ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ खुद वहां गए और पुजारी को नाथ पंथ में दीक्षित कर फिर से पद पर स्थापित कराया। यह प्रेरणादायी प्रकरण 1994 का है।

मंदिर में स्थापित कबीर, रैदास और रसखान

गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजयनाथ स्मृति सभागार में देश भर के सिद्ध साधु-संतों की प्रतिमा स्थापित है। इन प्रतिमाओं से भी मंदिर की जातिगत निरपेक्षता सिद्ध होती है। प्रतिमाओं की श्रृंखला में जितना सम्मान अन्य सिद्ध साधु-संतों को दिया गया है, उतना ही सम्मान संत कबीर, रैदास, रहीम और रसखान जैसे संतों को भी प्राप्त है। अवेद्यनाथ ने दलित से रखवाई राम मंदिर की पहली ईंट शायद कम लोगों को ही यह बात पता हो कि अयोध्या के श्रीराम मंदिर के शिलान्यास की पहली ईंट एक दलित ने ही रखा था और ऐसा करने का प्रस्ताव रखने वाले कोई और नहीं बल्कि तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ ही थे। उनके प्रस्ताव को वहां मौजूद सभी संतों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था।