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धरोहर : प्राचीन भारत में सिंचाई का प्रमुख साधन था चड़स

Written by स्वत्वाधिकारी,बैस्ट रिपोर्टर न्यूज,जयपुर on . Posted in बैस्ट रिपोर्टर एक्सक्लूसिव

लोकजीवन में कुओं, बावडिय़ों आदि से खेतों की सिंचाई के लिए चमड़े से बने एक कुण्ड आकार के बड़े पात्र, जो पानी निकालने के लिए काम आता है, को चड़स कहा जाता है। चड़स को कुएं से खींचने के लिए पुरुषों तथा बैलों का भी प्रयोग किया जाता था। चड़स बनाने का काम चर्मकार तथा चमड़े को रंगने वाले लोग करते रहे हैं, जिन्हें रंगार या रंगर भी कहते हैं। चड़स को बनाने के लिए मरे हुए बैल, भैंस तथा भैंसे की पूरी खाल की आवश्यकता होती है। मृत पशुओं से उतारी गई खाल यदि चड़स के लिए छोटी पड़ती है तो उसमें अनेक टुकड़े जोड़ लिए जाते हैं। खाल का बना हुआ गोलाकार कुण्डनुमा पात्र, जो कुएं से पानी भरकर लाता है, उसे कई स्थानों पर कोठा भी कहा जाता है। चड़स का ऊपरी भाग खुला हुआ रहता है। इसका व्यास 14,16 तथा 18 मुट्ठी का होता है। चड़स के ऊपरी भाग के चारों ओर लगभग आधा-आधा इंच के बीच 20 से 30 छिद्र होते हैं। संस्कृत में इन्हें आक्षिका कहते हैं। इन्हें आंखों के आधार पर ऊपरी खुले हुए भाग में लोहे का एक गोल घेरा या लकड़ी की चौखट बांध दी जाती है। लोहे के घेरे को कुण्ड, कुण्डल अथवा माण्डल कहते हैं। लकड़ी की चौखट को माची कहा जाता है। इस प्रकार कुण्डल व माची के साथ चड़स के ऊपरी भाग को आंखों के आधार पर चमड़े की पतली रस्सियों से बांध दिया जाता है। इन रस्सियों को बादी कहते हैं।
कई स्थानों पर बादी के स्थान पर चड़स के ऊपरी भाग को सिलने की परम्परा भी है। कुण्डल के ऊपरी हिस्से को लकड़ी के एक गुटके एवं कोल्ली के साथ जोड़ दिया जाता है। चड़स के मुंह के आकार को छोटा तथा बड़ा करने के लिए माण्डल के साथ लकड़ी का छोटा डंडा रहता है, जिसे डंका कहते हैं। माण्डल के ऊपर एक-दूसरे को काटती हुई लोहे की दो सलाखें लगी हुई होती हैं, इन्हें हौले एवं बौजी का नाम दिया गया है। हौले और कुण्डल के बीच में लोहे का एक कड़ा भी होता है, जो इन दोनों को जोड़े रखता है। कोल्ली के दोनों सिरों पर कांटे के खांचे एवं सांचे आगड़ा कहलाते हैं। इन्हीं आगड़ों में जिस रस्सी को बांधा जाता है, उसे लाह कहते हैं। लाह का एक हिस्सा चड़स से तथा दूसरा हिस्सा बैलों के कंधे पर रखे हुए जूए से बंधा हुआ होता है। भूण दो कडिय़ों के बीच गोलाकार का एक चक्र होता है, जिस पर चड़स कुएं के अंदर जाने तथा पानी भरकर लाने के लिए उसके ऊपर चलती है। लाव की गति को नियंत्रित रखने के लिए भूण के मध्य भाग में कीकर की कामडिय़ों को चीरकर उतारी गई छाल की रस्सियां भी बांध दी जाती है, जिसका एक छोर सिंचारा अपने हाथ में पकड़ कर रखते हैं, इस रस्सी को ठामणी कहते हैं। अनेक स्थानों पर चड़स को पानी में डुबोने के लिए उसके मुंह पर एक पत्थर भी बांध दिया जाता है, ताकि जब कुएं के अंदर चड़स जाए, तो वह आसानी से पानी में डूब जाए। चड़स के साथ बंधी हुई लाव को बैलों की पूंछ के पास बनाई गई लकड़ी की पट्टी, जिस पर चड़स चलाने वाला बैठता है। इस पट्टी का सीधा जुड़ाव बैलों के कंधों पर रखे पंजाली से होता है। पंजाली जुए से अलग होती है। पंजाली के ऊपरी तथा नीचे दोनों भागों पर डंडे लगाए जाते हैं, जिन्हें बूंगा कहते हैं, बूंगों के बीच छेद में लगाई गई खूंटियों को सलम कहा जाता है। इस प्रकार बैलों का जुड़ाव उनके पीछे लगी पट्टी से होता है, जैसे ही बैल चलते हैं, पट्टी खिंचती है, पट्टी की बंधी हुई लाव खिंचते हैं और लाव से बंधी हुई चड़स खिंच जाती है। चड़स को खींचने के लिए अनुभवी सिंचारों तथा हालियों की आवश्यकता होती है, क्योंकि चड़स को खींचते समय कुएं के बाहर निकलने के पश्चात् बैलों के साथ तादात्मय बनाकर चड़स को पानी से खाली करने का काम अत्यंत फुर्ती के साथ किया जाता है। चड़स में जोते जाने वाले बैल अनुभवी होते हैं। देहात में जब सिंचारे तथा हाली चड़स के माध्यम से खेत की पानी सिंचाई तथा कुएं खोदने का काम करते थे, तो वे अपने मनोरंजन के लिए मल्होर गीत तथा प्लावे गाने का काम करते थे। लोकजीवन एवं लोक साहित्य में चड़स से जुड़ी हुई अनेक पहेलियां, लोकोक्तियां तथा लोकगाहे आज भी प्रचलित हैं। एक हरियाणवी लोकगाहा देखिए, जिसमें चरखा, भूंण के बारे में कुछ इस तरह से अभिव्यक्ति की गई है – चरखा तो चूं चूं करै, अर भूंण भचेड़ा लेय, गाड़ी तो आड्डी चाल्लै, कहो चेला कित थेय – अर्थात् जब चरखा चूं-चूं की ध्वनि करता हुआ चलने लगे, भूंण डिगमगाता हुआ खटखटाने लगे और गाड़ी टेढ़ी होकर चलने लगे तो हे शिष्य! बताओ क्या अवस्था होगी?
एक अन्य लोक पहेली में चड़स की महत्ता कुछ इस प्रकार दर्शाई गई है – ऊंचे जी ढाणै चड़स, धोरै पाणी जाय, लखपतियां पाणत करै, गोरी फर फर जाय – अर्थात् ऊंचे ढाणे तथा स्थान पर चड़स चल रहा है, उसके पास से पानी बह रहा है, लखपति पाणत (पाणी-पात करणा) कर रहे हैं और गोरी बार-बार जाती है। चड़स की महिमा बयां करती एक पहेली – ऊंचा ढाणा चड़स चाल्यो, धोरा चाल्या च्यार, केसर कस्तूरी पाणत करै, गोरी फर फर जाय। जब चड़स भर जाता है तो किल्लिया अर्थात् किल्ली लगाने वाले को सचेत करते हुए कहता है – सहार ले रेै जल जा भर्यो। चड़स के ऊपर आने पर वह प्रार्थना भी करता है – किल्लिया हो लिआई ऐ रे राम। इस प्रकार एक पंथ दो काज हो जाते हैं। राम के नाम का जप भी हो जाता है और सर्वविनोदन कार्य भी हो जाता है। चड़स से किल्ली का निकालकर ही बारिया यह कहने से भी नहीं चूकता कि – किल्ली लाईयो, राम मनाईयो। इस उक्ति को देहात में कुछ इस प्रकार भी कहा जाता है – किल्ली लाईयो, राम मनाईयो, कीलिया रै डाल्लै बोझ, भैरा बोल्लै सै, आया रै खूब भोला भाई। देहात में धायां-धींगड़ा-खड़ खड़ खडिय़ा लें – लोक कथात्मक उक्ति का सीधा सम्बन्ध भी चड़स से ही है।
वर्तमान में चड़स अतीत का हिस्सा बन चुका है। आपसी भाईचारे को बढ़ाने में चड़स से पानी निकालने की प्रक्रिया ने ग्रामीणों को एक- दूसरे से जोडऩे का जो काम किया है वह पूरे समाज की सांस्कृतिक विरासत का खजाना था क्योंकि इसके माध्यम से जो पुरु ष तथा मल्होर गीत गाये जाते थे, उनके माध्यम से हमारी हरियाणवी संस्कृति का जो संरक्षण हुआ है वह अपने आप में किसी विरासत से कम नहीं है।